चुनाव प्रचार के दौरान आमतौर पर शिक्षा और शिक्षा संबंधी समस्याओं को शीर्ष स्तरीय मुद्दों में नहीं गिना जाता। लोक सभा चुनाव प्रचार के चलते राष्ट्रीय रक्षा, कश्मीर और आर्थिक मामलो के बीच शिक्षा का मुद्दा कही दबा ही रह जाता है। इसके विपरीत, शिक्षा के मुद्दे को राज्य चुनाव प्रचार का हिस्सा माना जाता है। गौर करने वाली बात है कि शिक्षा चुनाव प्रचार का एक ज़रिया ही बन के रह जाता है। असलियत में चुनाव जीतने के बाद इस क्षेत्र में कोई मुख्य बदलाव नहीं दिखता।
बजट २०२० में भारत की वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने शिक्षा के क्षेत्र में आवंटन को वित्त वर्ष २१ में ५ प्रतिशत बढ़ाकर ९९,३११.५२ करोड़ रुपये कर दिया है। अपने भाषण में उन्होंने कहा कि २०३० तक भारत दुनिया में सबसे बड़ी कामकाजी आयु की आबादी के लिए निर्धारित है। भारत को उच्च शिक्षा के लिए एक पसंदीदा स्थान बनाने के लिए एक नई परिक्षा 'इंड-सैट' की भी घोषणा की गयी। परंतु शिक्षा प्रणाली में बदलाव लाने के लिए कुछ ठोस कदम उठाने ज़रूरी हैं।
२०२० दिल्ली राज्य चुनाव की बात करें तो वहाँ हमें एक प्रमुख बदलाव दिखता है। भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि कोई राजनीतिक दल शिक्षा के क्षेत्र में किए गए कार्यों के आधार पर चुनाव लड़ा और जीता भी। आम आदमी पार्टी के राज्य काल के दौरान बहुत बड़े और महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिले। ८,००० से अधिक नई कक्षाओं का निर्माण, सरकारी विद्यालयों में खुशी और उद्यमिता के पाठ शुरू करना, दसवीं और बारहवीं के छात्रों के लिए केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सी बी एस ई) पंजीकरण की लागत को सरकारी कोष से देना, हाशिए पर रहने वाले छात्रों के लिए कोचिंग मुफ़्त करना, और इस तरह के अनेक कार्यक्रमों का शुभारंभ करके केजरीवाल सर्कार ने शिक्षा प्रणाली में सुधार लाने के लिए प्रभावशाली बदलाव लाये हैं। शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए उन्हें कैम्ब्रिज और ऑक्सफोर्ड जैसे विदेशी विश्वविद्यालयों में भी भेजा गया। दिल्ली के उदाहरण से यह देखने को मिलता है कि सिर्फ़ बजट का आवंटन बढ़ाने से शिक्षा प्रणाली में बदलाव नहीं आएगा बल्कि कुछ दृढ़ कदम भी उठाने की ज़रूरत है।
सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली का गिरता स्तर एक अहम मुद्दा है और यह अति आवश्यक है कि इसको सुधारने के लिए कुछ कठोर कदम उठाये जाएँ। रोजगार और बेरोजगारी जैसे मुद्दों को उठाने वाले राजनीतिक नेताओं में से शायद ही कोई होगा जो बिगड़ती शिक्षा प्रणाली के बारे में बात करता है। यह विसंगति और भयावह है क्योंकि उन नेताओ की रुचि महाविद्यालयों की राजनीति तथा युवाओं को अपने चुनाव अभियानों में शामिल करने में होती है। जबकि वे उस ही महाविद्यालय परिसर में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार करने में रुचि नहीं लेते।
सार्वजनिक शिक्षा की ओर नेताओ की ग़ैरदिलचस्पी के लिए दो सामान्य तर्क हैं। पहला तो यह की सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में उनकी कोई हिस्सेदारी नहीं है क्योंकि अधिकतर नेताओं के बच्चे निजी विद्यालयों में दाखिल होते हैं। और दूसरा यह की वे नहीं चाहते कि उनकी जनता शिक्षित हो क्योंकि शिक्षित जनता को प्रभावित करना मुश्किल होता है। युवा भी देश भर में फैली बेरोज़गारी को ख़तम करने के बारे में सुनना ज़्यादा पसंद करते हैं। संभवतः, उनमें से कई सीखने के बजाय अपनी डिग्री हासिल करने में ज़्यादा रुचि रखते हैं। राजनीतिक नेताओं के पास संसाधन जुटाने और स्थानीय समस्याओं को ठीक करने की जबरदस्त क्षमता है। शिक्षा प्रणाली में आए बदलावों के परिणाम तुरंत दिखाई नहीं देते इसलिए चुनावों के बीच शायद यह बदलाव देखने को न मिले। लेकिन दृढ़ निष्चय से लिए गए कुछ ठोस कदमो से निष्चित रूप से प्रगति दिखाई देगी। दूसरी ओर, एक बिगड़ती शिक्षा प्रणाली का मुख्य हितधारक होने के नाते, छात्रों को जाति और धर्म जैसे मुद्दों के आधार पर राजनेताओं को मत देने से खुदको रोकना होगा। समय आ गया है की समाज के विभिन्न हितधारकों की सक्रिय भागीदारी के साथ सार्वजनिक वित्त पोषित शैक्षिक संस्थानों को मजबूत करके सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध और सुलभ बनाई जाये। शिक्षा नहीं तो वोट नहीं।
- Tarsh Verma,a first year student of political science at Sri Venkateswara College and an intern at Edjustice People's Campaign.
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